किस तरह पहुंचीं इस मंजिल तक?
एक शादी समारोह में मेरे पिता की वीरेंद्रजी से मुलाकात हुई। उस दौरान वीरेंद्र देश के टॉप एथलीट्स में से एक थे। पहली बार में ही पिता ने उनको मेरे लिए पसंद कर लिया। मैं फाइनल ईयर में आई तो हमारी शादी हो गई। मेरी हाइट और पर्सनेलिटी को देखकर वीरेंद्र ने शादी के बाद खेल जारी रखने की इच्छा जाननी चाही। मैंने बिना कुछ सोचे-समझे हां कर दी। इसके बाद मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
पति ही आपके कोच हैं। कैसे तालमेल बिठाते हैं? घर पर किसकी चलती है?
दूसरी महिला खिलाडियों की तुलना में खुद को अधिक खुशनसीब मानती हूं। खेल के मैदान में पहुंचते ही हमारा रिश्ता बदल जाता है। हम पति-पत्नी की बजाय कोच और खिलाड़ी की तरह एक-दूसरे के साथ व्यवहार करते हैं। लेकिन मैदान के बाहर हमारे बीच एक अलग तरह का प्यारभरा रिश्ता है। मैदान में वीरेंद्र कोच के रूप में डांटते-फटकारते हैं तो घर पर पति का फर्ज भी बखूबी निभाते हैं। प्रशिक्षण के दौरान मेरी तकनीकी खामियों को लेकर अक्सर गुस्सा करते हैं, पर मैंने कभी बुरा नहीं माना। क्योंकि उस वक्त वे पति नहीं, बल्कि कोच की भूमिका निभा रहे होते हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि हमने मैदान की बातों को कभी घरेलू जिंदगी में नहीं आने दिया।
प्रशिक्षण के वक्त पति के साथ का रोमांचक वाकया?
प्रशिक्षण के समय हम दोनों में छोटा-मोटा मजाक तो चलता रहता है। वैसे हम अलग तरह के रिजर्व नेचर के कपल हैं। पति में हमेशा से ही मैच्योरिटी रही है। वे ना तो अधिक गंभीर रहते हैं और ना ही लापरवाह। हमने अपना दायरा तय कर रखा है और उसी में रहकर खुद को पूरी तरह एंजॉय करते हैं। दोनों को ही बड़ी पार्टियां अच्छी नहीं लगतीं, पर घर पर अपनों के बीच समय बिताने का कभी कोई मौका नहीं छोड़ते।
बचपन की कोई याद?
मैं शुरू से संयुक्त परिवार में रही। बचपन में खूब मस्ती करते थे। घर में 200 भैंसें हुआ करती थीं। घर पर उनका दूध निकालती थी, बड़ा मजा आता था।
बेटे लक्ष्यराज को अकेला छोड़कर प्रेक्टिस करना... कितना मुश्किल रहा?
बेटे से दूर जाने का मन नहीं करता, पर खेल के लिए सब कुछ करना पड़ता है। पर खुशी इस बात की है कि लक्ष्यराज संयुक्त परिवार में रहकर संस्कार सीख रहा है। वह अपनी दादी और चाची के पास भी बड़ा खुश रहता है।
खाली समय में क्या करती हैं?
मुझे पढ़ना पसंद है। प्रेक्टिस और घरेलू कामों के बाद समय मिलता है तो गीता, रामायण जैसी धार्मिक पुस्तकें पढ़ती हूं।
मैं हूं ऑलराउंडर
अपने आप को सेलिब्रिटी या आम गृहिणी की बजाय ऑलराउंडर कहना चाहूंगी। एक ऎसी ऑलराउंडर जो खेल, घर-परिवार और रेलवे की डयूटी को बखूबी पूरा करती हूं। जब घर पर होती हूं तो खाना बनाने और कपड़े धुलाने से लेकर बर्तन तक साफ करवा देती हूं। यह सब देख सास और देवरानियां मुझे घरेलू काम करने की बजाय आराम करके प्रशिक्षण की थकान मिटाने की सलाह देती नहीं थकतीं।
घर वालों का प्यार
देवर सतीश, विनोद और देवरानी ओम और राजबाला ने मेरे बेटे लक्ष्यराज को मम्मी-पापा का प्यार दिया। यही वजह है कि बेटे को एक वर्ष का छोड़कर मैं तैयारियो में जुट गई थी। 2004 के बाद तो साल-साल भर तक बेटे से दूर रही। बेटे के स्कूल में पैरेंट्स मीटिंग में कभी नहीं जा पाई, मगर देवर-देवरानियों ने कभी मेरी कमी महसूस नहीं होने दी। इसी वजह से मैंने बेटे की चिंता किए बगैर दिन-रात खेल पर ध्यान दिया। रही बात सास के रवैये कि तो यही कहूंगी कि उनके कोई बेटी नहीं है और मैंने बचपन में अपनी मां को खो दिया था। अब सास के रूप में मुझे मां और उन्हें मेरी जैसी बेटी मिल गई है। हमारा परिवार संयुक्त होने के बावजूद मुझे कभी किसी से गिला-शिकवा नहीं रहा। घर के प्रत्येक सदस्य का रवैया कुछ ऎसा है कि लगता है मैं ससुराल नहीं,बल्कि अभी भी मायके में ही रह रही हूं।
Wednesday, November 10, 2010
कमाल की कृष्णा
राष्ट्रमंडल खेलों की ट्रैक एंड फील्ड स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला डिस्कस थ्रोअर कृष्णा पूनिया से अंतरंग बातचीत।
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